देश के कई विश्वविद्यालयों में छात्र संघ के चुनाव हो रहे हैं। लेकिन अभी भी अधिकांश विश्वविद्यालयों में छात्र संघ के चुनावों पर रोक लगी है। ‘शिक्षण संस्थानों में छात्र संघ के चुनाव होने चाहिए या नहीं’ यह बहस बहुत पुरानी है और आज भी इस पर जोरदार बहस चलती रहती है। हलाकि कोरोना महामारी के कारण वर्तमान में विवि में छात्रों की पढ़ाई ऑनलाइन मोड में चल रही है। छात्रों के लिए परिसर अभी बंद हैं। ऐसे में चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के आसार भी नहीं हैं। हालांकि अब भी चुनाव संभव नहीं हैं। कॉलेज खुल पाएं और छात्रों का नियमित आना संभव हो तो छात्रसंघ चुनाव लायक माहौल बनेगा। फिलहाल ऐसी स्थितियां नहीं हैं। वैसे भी चुनाव कराने या न कराने पर अंतिम निर्णय विश्वविद्यालय और कॉलेजों के स्तरो से ही लिया जाना है।
दरअसल वर्तमान में राजनीति का स्तर काफी बदल चूका है। राजनीति अब शक्ति प्रदर्शन सत्ता प्राप्ति के अवसरों को छोड़ना तथा उसके लिए संघर्ष करना तक समिति रह गया है। कहा जाता है की परिवार में जो भी घटनाएं होती है उसका सीधा असर घर के बच्चों पर पड़ता है। उसी तरह राजनीति में भी जब-जब परिवर्तन होता है उसका सीधा प्रभाव देश के युवा वर्ग पर पड़ता है। यह वर्ग कोई और नहीं बल्कि शिक्षण संस्थाओ में पढ़ने वाला युवा वर्ग होता है। वर्तमान छात्र राजनीति की सबसे बड़ी चुनौतियाँ है की छात्र समुदाय का संगठित न होना छात्रों के एक मजबूत संगठन के आभाव में छात्र राजनीति संशय में है। वर्तमान में छात्र राजनीति कॉलेज / विश्वविद्यालय परिसर के बाहर की स्थिति हो गयी है। जो एक भ्र्म पूर्ण स्थिति बन गई है। इसमें राजनीतिक दलों द्वारा छात्र नेताओं को प्रलोभन देकर अपने लाभ के लिए कार्य करवाने की स्थिति बानी रहती है।
आज विश्वविद्यालयों में शिक्षा का व्यावसायीकरण जोरों पर है। शुल्क में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। शिक्षा के मंदिर दुकान में तब्दील हो गए हैं। अयोग्य छात्र भी पैसे के बूते डिग्रियां खरीद रहा है जबकि प्रतिभाशाली छात्र पैसे के अभाव में उच्च शिक्षा से वंचित हो रहा है। प्रतिभाशाली छात्र असमानता का शिकार हो रहा है। शिक्षण संस्थानों का उद्देश्य शैक्षिक गुणवत्ता के बजाय धन कमाना हो गया है। सवाल है कि ऐसी परिस्थितियों में विश्वविद्यालय प्रशासन की मनमानी के खिलाफ कौन आवाज बुलंद करेगा? एक आम छात्र के हक के लिए कौन सामने आएगा? जाहिर है छात्रों को ही अपने अधिकार के लिए एकजुट होना होगा।
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आज जब समाज-जीवन और राष्ट्रीय राजनीति में भी विकृतियां दिखाई दे रही है तो उसका प्रतिबिम्ब छात्र राजनीति पर भी पड़ना स्वाभाविक है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि कई शिक्षण संस्थानों में छात्र संघ चुनाव में अपराधीकरण की प्रवृति व्याप्त है। यह सचमुच चिंता का विषय है लेकिन रोग को दूर करने के बजाए रोगी को मारना, यह कैसा न्याय है? यहां सवाल उठता है कि क्या लोकसभा और विधानसभा चुनाव में हिंसा नहीं होती? तो फिर छात्र संघ चुनाव पर ही क्यों रोक लगाए जाते हैं? कारण साफ है कि छात्र समुदाय स्वभाव से ही सत्ता और व्यवस्था विरोधी होता है। यदि छात्र एकजुट हो गए तो सरकार और प्रशासन की मनमानी कैसे चलेगी?