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जानिए महाभारत के 18 महत्वपूर्ण अंक, और सबसे लोकप्रिय श्लोक

दुनिया के प्रथम विश्वयुद्ध महाभारत को महाकाव्य माना जाता है। महाभारत में कई घटना, संबंध और ज्ञान-विज्ञान के रहस्य छिपे हुए हैं। क्योंकि महाभारत में 1,10,000 श्लोक हैं. महाभारत को पंचम वेद भी कहा गया है। मानव जीवन का हर पक्ष इसमें समाया हुआ है। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो महाभारत में नहीं है। हालांकि यह एक आश्चर्य और रहस्य आज भी बरकरार है कि आखिर महाभारत के युद्ध में जहां कृष्ण के साथ 8 अंक जुड़ा रहा वहीं इस युद्ध में 18 का अंक की समानता का रहस्य क्यों है यह शोध का विषय हो सकता है।

पूरा महाभारत 18 पर्वों में बंटा हुआ है. ये 18 पर्व हैं- आदिपर्व, सभापर्व, अरयण्कपर्व, विराटपर्व, उद्योगपर्व, भीष्मपर्व, द्रोणपर्व, कर्णपर्व, शल्यपर्व, सौप्तिकपर्व, स्त्रीपर्व, शांतिपर्व, अनुशासनपर्व, अश्वमेधिकापर्व, आश्रम्वासिकापर्व, मौसुलपर्व, महाप्रस्थानिकपर्व, स्वर्गारोहणपर्व.

ऋषि वेदव्यास ने महाभारत ग्रंथ ‍की रचना की जिसमें कुल 18 पर्व हैं- आदि पर्व, सभा पर्व, वन पर्व, विराट पर्व, उद्योग पर्व, भीष्म पर्व, द्रोण पर्व, अश्वमेधिक पर्व, महाप्रस्थानिक पर्व, सौप्तिक पर्व, स्त्री पर्व, शांति पर्व, अनुशासन पर्व, मौसल पर्व, कर्ण पर्व, शल्य पर्व, स्वर्गारोहण पर्व तथा आश्रम्वासिक पर्व। मालूम हो क‍ि ऋषि वेदव्यास ने 18 पुराण भी रचे हैं।

महाभारत का युद्ध 18 दिनों तक लड़ा गया है.  कौरवों और पांडवों की सेना भी कुल 18 अक्षोहिनी सेना थी, जिनमें कौरवों की 11 और पांडवों की 7 अक्षोहिनी सेना थी

महाभारत युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी 18 थे,  जिनके नाम थे- धृतराष्ट्र,  दुर्योधन,  दुशासन,  कर्ण,  शकुनि,  भीष्म,  द्रोण,  कृपाचार्य,  अश्वत्थामा, कृतवर्मा,  श्रीकृष्ण,  युधिष्ठिर,  भीम,  अर्जुन,  नकुल,  सहदेव,  द्रौपदी एवं विदुर

वही महाभारत के रचियता वेद व्यास माने जाते हैं और यह प्रचलित मत है कि उन्होंने ही 18 पुराणों की रचना की है

भगवदगीता के सबसे लोकप्रिय श्लोक

(1)

नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥

(द्वितीय अध्याय, श्लोक 23)

इस श्लोक का अर्थ है: आत्मा को न शस्त्र  काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। (यहां भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा के अजर-अमर और शाश्वत होने की बात की है।)

(2)

हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।

तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥

(द्वितीय अध्याय, श्लोक 37)

इस श्लोक का अर्थ है: यदि तुम (अर्जुन) युद्ध में वीरगति को प्राप्त होते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि विजयी होते हो तो धरती का सुख को भोगोगे… इसलिए उठो, हे कौन्तेय (अर्जुन), और निश्चय करके युद्ध करो। (यहां भगवान श्रीकृष्ण ने वर्तमान कर्म के परिणाम की चर्चा की है, तात्पर्य यह कि वर्तमान कर्म से श्रेयस्कर और कुछ नहीं है।)

(3)

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 7)

इस श्लोक का अर्थ है: हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म ग्लानि यानी उसका लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं (श्रीकृष्ण) धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।

(4)

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥

(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 8)

(5)

इस श्लोक का अर्थ है: सज्जन पुरुषों के कल्याण के लिए और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए… और धर्म की स्थापना के लिए मैं (श्रीकृष्ण) युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता आया हूं।

क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।

स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

(द्वितीय अध्याय, श्लोक 63)

इस श्लोक का अर्थ है: क्रोध से मनुष्य की मति मारी जाती है यानी मूढ़ हो जाती है जिससे स्मृति भ्रमित हो जाती है। स्मृति-भ्रम हो जाने से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि का नाश हो जाने पर मनुष्य खुद अपना ही का नाश कर बैठता है।