उत्तराखंड में आग की घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही है। बागेश्वर जिले में आग लगने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। अभी तक 210 हेक्टेयर वन भूमि जल कर खाक हो गई है। वन विभाग को छह लाख का नुकसान हो गया है। जंगल में आग लगने के कारण वन्यजीवों का भी जीवन संकट में है। वह जान बचाने के लिए मानव बस्तियों की तरफ रुख कर रहे हैं। ऐसे में मानव वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं भी बढ़ सकती हैं।
बीते रविवार की शाम जिले में हल्की बारिश हुई। कुछ जंगलों को आग से राहत मिली। लेकिन नदीगांव के ऊपर के जंगल हाई बोल्टेज की चपेट में आ गए। जंगल के बीच से गुजर रही हाई टेंशन लाइन में स्पार्किंग होने के कारण जंगल में आग लग गई। वन पंचायत सरपंच संगठन के अध्यक्ष पूरन रावल ने कहा कि बिजली की हाई टेंशन लाइन से भी जंगलों में आग लग रही है। लाइन के आसपास पेड़ों पर लौपिंग जरूरी है।
उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी हेम पंत ने बताया कि जंगली जानवरों का मानव बस्तियों की ओर आ जाना और भूख-प्यास के लिए लोगों के घरों में घात लगा कर हमला करने से मानव-वन्यजीव संघर्ष का खतरा और भी बढ़ रहा है। जल्द ही इस समस्या पर काबू न पाया गया तो इनका परिणाम पर्वतीय ग्रामीण अंचलों से पलायन के रूप में देखने को मिलना तय है। वन्यजीवों का मानव वसासतों तक डेरा डालना कोई अच्छा संकेत नहीं है।
राज्य आंदोलनकारी हीरा बल्लभ भट्ट का कहना है कि जंगलों की आग पर बिना समय गंवाए यदि कोई ठोस एवं प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो ऐसे दुर्लभ वन्यजीवों का ग्रामीण क्षेत्रों में और दखल बढ़ेगा जिसके कारण दोनो के बीच में आपसी संघर्ष को रोकना जिम्मेदार महकमों के लिए काफी मुश्किल होगा। सामरिक महत्व के लिए हिमालयी राज्यों से होने वाला मानव पलायन देश हित में नही माना जा सकता है।
सवाल संगठन के अध्यक्ष रमेश कृषक ने बताया कि वन संरक्षण अधिनियम 1980 ही है। इस एक्ट के जरिए पर्वतीय ग्रामीणों के हक-हकूक छीन लिए गए हैं। इस एक्ट के लागू होने से पहले ग्रामीण आरक्षित वन क्षेत्र और निजी जंगलों के बीच की असिंचित जमीन पर खेती करते हैं। इसकी उपज से ही तमाम वन्यजीव अपना भोजन भी लेते थे। एक्ट लागू होने के बाद किसानों ने इस असिंचित जमीन की चिंता ही छोड़ दी और इस जमीन पर भी जंगल विकसित होने दिया। इसकी वजह यह रही कि ग्रामीणों को अपनी तमाम जरूरतों के लिए लकड़ी की जरूरत होती थी और नए कानून की वजह से वे जंगल से लकड़ी नहीं ले सकते हैं।