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कांग्रेस के साथ आए पश्चिमी UP के तीन मुस्लिम चेहरे, जानिए कौन कितने पानी में?

पश्चिम उत्तर प्रदेश की मुस्लिम सियासत एक बार फिर से करवट बदलती हुई नजर रही है. बसपा से निकाले जाने के बाद इमरान मसूद ने आखिरकार कांग्रेस में वापसी कर गए हैं. इसी के साथ अब एक के बाद एक मुस्लिम नेता कांग्रेस का दामन थाम रहे हैं. बागपत जिले के कद्दावर चेहरा रहे पूर्व मंत्री कोकब हमीद के पुत्र हमीद अहमद ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली है. इसके अलावा सहारनपुर के सपा नेता फिरोज आफताब ने भी साइकिल से उतरकर कांग्रेस में एंट्री कर गए हैं.

कांग्रेस पश्चिमी यूपी में मुस्लिम मतदाताओं के सहारे अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन को तलाशने में जुटी है. यही वजह है कि प्रियंका गांधी को यूपी के चुनावी मझधार छोड़कर सपा की साइकिल की सवारी करने वाले इमरान मसूद को कांग्रेस ने वापस ले लिया है. कांग्रेस इसे लेकर सूबे में भले अपना सियासी माहौल बनाने में जुटी हो, लेकिन पार्टी का हाथ थामने वाले तीनों मुस्लिम नेता अपनी सियासी जमीन खो चुके हैं. ऐसे में कांग्रेस के लिए राजनीतिक मुफीद कैसे होंगे?

इमरान के सामने सियासी वजूद बचाने की चिंता

सहारनपुर की राजनीति में मुस्लिम चेहरा माने जाने वाले इमरान मसूद एक के बाद एक चुनाव लगातार हारते जा रहे हैं. बसपा से निकाले जाने के बाद उनके सामने अपने राजनीतिक वजूद बचाए रखने की चुनौती खड़ो हो गई है. 2006 में सहारनपुर नगर पालिका के चेयरमैन बने और एक साल बाद 2007 में विधायक बन गए. इसके बाद से हर लोकसभा और विधानसभा चुनाव इमरान मसूद लड़ते रहे, लेकिन उन्हें जीत दर्ज नहीं कर सके. इसके चलते वो ना ही दोबारा विधायक बने और ना ही कभी सांसद बन सके. बीजेपी छोड़ सभी दल में रह चुके हैं.

बता दें कि काजी रसीद मसूद के निधन और लगातार मिल रही चुनावी मात से सहारनपुर में मुस्लिमों पर इमरान मसूद की पकड़ कमजोर होती चली जा रही और दूसरे मुस्लिम नेता काफी मजबूती से खड़े हुए हैं. यही वजह रही कि 2022 के चुनाव में कांग्रेस से सपा में आने के बाद भी अखिलेश यादव ने उन्हें टिकट नहीं दिया और न ही उनके साथ आए नेताओं को लड़ाया. इसके बाद एमएलसी भी नहीं बनाया तो इमरान ने सपा छोड़कर बसपा का दामन थाम लिया. इमरान ने अपने भाई की पत्नि को सहारनपुर से बसपा के टिकट पर मेयर का चुनाव लड़ाया, लेकिन जीत दर्ज नहीं करा सके.

बसपा के दलित-मुस्लिम समीकरण को भी अमलीजामा नहीं पहना सके तो मायावती उनसे किनारा करना शुरू कर दिया था. कर्नाटक चुनाव के बाद इमरान मसूद का दिल कांग्रेस के लिए हिलोरे मारने लगा तो मायावती ने उन्होंने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. बसपा से निकाले जाने के बाद इमरान मसूद के पास किसी तरह का सियासी विकल्प नहीं बचा था, जिसके बाद चलते उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया और मरते दम तक पार्टी में रहने का वचन तक दे डाली. हालांकि, सहारनपुर जिले में नई मुस्लिम लीडरशिप खड़ी हो जाने के चलते, इमरान मसूद के लिए राह आसान नहीं रहने वाली और न ही कांग्रेस के लिए बहुत मुफीद साबित होंगे.

बागपत में हाशिए पर हमीद की सियासत

पूर्व मंत्री नवाब कोकब हमीद के बेटे हमीद अहमद ने आरएलडी छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया. बागपत की सियासत पर भले ही जयंत चौधरी के परिवार का दबदबा रहा हो, लेकिन नवाब कोकब हमीद के परिवार की भी तूतो बोलती थी. सियासत में नवाब परिवार की तीसरी पीढ़ी के हमीद अहमद अपने दादा शौकत अली और पिता कोकब हमीद की राजनीतिक वारिस हों, लेकिन उसे मजबूती से संभालकर नहीं रख सके. बसपा से लेकर आरएलडी तक से चुनाव लड़कर देख चुके हैं, लेकिन जीत दर्ज नहीं कर सके. इतना ही नहीं बागपत और उससे लगे हुए मुस्लिम कस्बों में भी उनकी पकड़ कमजोर हुई है.

हमीद अहमद के पिता पूर्व मंत्री कौकब हमीद बागपत से पांच बार विधायक रहे, जिसमें वो चार बार मंत्री बने. आरएलडी के दिग्गज नेता और मुस्लिम चेहरा माने जाते थे. कोकब हमीद की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए उनके बेटे हमीद अहमद ने आरएलडी के बजाय बसपा की हाथी पर सवार हुए. 2017 में बीएसपी के टिकट पर चुनाव लड़े, लेकिन जीत नहीं सके. इसके बाद आरएलडी में घर वापसी कर गए, लेकिन उसके बाद भी 2022 का चुनाव नहीं सके जबकि सपा का गठबंधन था. अब एक बार फिर से पाला बदलते हुए कांग्रेस में शामिल हो गए हैं, लेकिन बागपत में जिस तरह से राजनीति खड़ी हुई है, उसके चलते उनके लिए भविष्य सियासी राह आसान नहीं है.

फिरोज आफताब बिना आधार वाले नेता

सहारनपुर के सपा नेता फिरोज आफताब ने सपा की साइकिल से उतरकर कांग्रेस का हाथ लिया है. फिरोज आफताब का अपना कोई खास सियासी आधार नहीं है. 2012 में सहारनपुर के नकुड़ सीट से सपा के टिकट पर चुनावी मैदान में उतरे थे और तीसरे नंबर पर रहे थे. उन्हें महज 29,503 वोट ही मिल सका था. इसके बाद से सपा में हाशिए पर थे और अब उन्होंने कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. इस तरह से उनका अपना सियासी आधार कोई खास नहीं है, क्योंकि 2012 में जो उन्हें वोट सपा प्रत्याशी होने के चलते मिले थे. इस तरह फिरोज आफताब के आने से कांग्रेस को एक नेता मिल गया है, लेकिन सियासी फायदा कितना होगा यह तो वक्त ही बताएगा.

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