दरअसल करवाचौथ का चाँद देख कर व्रत तोड़ने के लिए सभी महिलायें छत पर शाम से ही इकट्ठा होना शुरू कर देती हैं. तीन बजे से ही कुछ महिलायें छत के बीचोंबीच रंगोली बनाने लगती हैं. इसके लिए कभी-कभी तो कामिनी के छोटे से गार्डन में बड़ी मेहनत से उगाये गए फूलों की बलि भी चढ़ जाती है. फिर तमाम महिलायें रंगोली के गिर्द गोले में अपनी अपनी करवे की थालियां सजा देती हैं. जिनके पीछे बैठ कर ढोल मजीरे के साथ सुहागिनों के गीत गाये जाते हैं. करवे की कहानी सुनी जाती है. वैसे औरतों का ध्यान करवा की कहानी से ज़्यादा अन्य महिलाओं के वस्त्रों और आभूषणों पर होता है. व्रत के बावजूद चार बजे के बाद कोल्ड ड्रिंक पीने की इजाज़त पंडित ने दे रखी है, लिहाज़ा चार बजते ही धड़ाधड़ कोल्ड ड्रिंक की बोतलें खुलने लगती हैं. हंसी-मज़ाक, गाने-नाचने और अपनी नयी-नयी मंहगी ड्रेसेस, आभूषणों और श्रृंगारों के दिखावे के इस पब्लिक कार्यक्रम के साथ खाली बोतलें और उनके ढक्कन पूरी छत पर इधर-उधर फ़ैल जाते हैं. दीयों के तेल, मिठाइयों के डिब्बे और रैपर, माचिस की तीलियों और अन्य कचड़े से कामिनी की साफ़-सुथरी छत पर गन्दगी का ढेर लग जाता है, जिसको साफ़ करने की ज़िम्मेदारी कोई नहीं लेता. चाँद के निकलते ही तमाम औरतें व्रत तोड़ कर पकवानो से पेट भरने के लिए अपने-अपने किचेन की और दौड़ पड़ती हैं. गन्दगी से पटी छत पीछे छूट जाती है, जिसे कामिनी दूसरे, तीसरे और चौथे दिन तक साफ़ करती रहती है.
करवाचौथ का दिन कामिनी के लिए साल का सबसे मनहूस दिन होता है. यह दिन उसको गाली की तरह लगता है. उपेक्षा की सलाखों से उसका सीना छलनी होता है. घृणा की नज़रें उसको बेधती हैं. सुहागिनों के गीत उसके कानों में गर्म पिघले शीशे की तरह महसूस होते हैं. कभी-कभी तो वह गहरी उदासी और अवसाद में चली जाती है. करवाचौथ के रोज़ कामिनी पूरे दिन सुमित को ले कर अपने फ्लैट में कैद रहती है. उसको सख्त निर्देश हैं कि उस दिन उसकी छाया किसी सुहागिन पर ना पड़े. वह किसी को अपना चेहरा ना दिखाए क्योंकि वो एक विधवा है. लिहाज़ा उस दिन कितना भी ज़रूरी काम क्यों ना हो, वो अपने फ्लैट से बाहर ही नहीं निकलती है. नन्हे सुमित को लेकर बेडरूम में बंद रहती है. सुमित मचलता है – मम्मी आज हम छत पर क्यों नहीं जा रहे हैं? मम्मी ये सारी आंटियां हमारी छत पर गाना क्यों गा रही हैं? हम उनके पास क्यों नहीं जा सकते? मम्मी तुम इन आंटियों की तरह क्यों नहीं सजती हो? सुमित सैकड़ों सवाल कामिनी पर दागता है मगर कामिनी के पास उसके किसी सवाल को जवाब नहीं होता है. करवाचौथ का व्रत जो अब पब्लिक फंक्शन बन चुका है, पढ़ी लिखी और समझदार कामिनी को विचलित कर जाता है. उसको उसके अकेलेपन का अहसास दिलाता है.
उसके मुँह पर तमाचा मार कर कहता है कि उसे श्रृंगार करने का हक नहीं है, गाने बजाने का हक नहीं है, खुश रहने का हक नहीं है, क्योंकि वह विधवा है. उपेक्षित है, तिरस्कृत है, इतनी मनहूस है कि उसकी छाया से भी लोग बचते हैं, डरते हैं. वह अपशकुन है, समाज पर काला धब्बा है. इन तमाम कडुवे शब्दों का दंश कामिनी बीते पांच सालों से झेल रही है. यहाँ तक कि उसकी अपनी माँ भी करवाचौथ के दिन या उसके आसपास कामिनी को कभी अपने घर नहीं आने देती है. कहती है उसके वहां होने से उनका और उनकी बहु का करवाचौथ का व्रत दूषित होगा. सास और ननद तो सालों से उससे मुँह मोड़ कर बैठी हैं. कामिनी को उसके पति की मृत्यु का उतना दुःख और कष्ट नहीं होता, जितना करवाचौथ का दिन तकलीफ देता है. इस दिन के गुजरने के बाद उसकी मानसिक स्थिति ठीक होने में कई दिन लग जाते हैं.
करवाचौथ को भारतीय महिलाओं का सबसे बड़ा त्यौहार माना जाता है. धर्म ने यह दिन को उनके सजने-संवारने, नख-शिख तक बहुमूल्य वस्त्र-आभूषण धारण करने, नाचने-गाने और उत्सव मनाने के लिए भेंट किया है. करवाचौथ की तैयारियां महिलाएं कई सप्ताह पहले से करने लगती हैं. उस ख़ास दिन पर क्या पहनना है इसका चुनाव महीने भर पहले से होने लगता है. मंहगी साड़ी, लहंगे के साथ मैचिंग जड़ाऊ ब्लाउज़ सिलवाने के लिए दर्ज़ियों की दुकानों पर लाइन लग जाती है. हरी-लाल या मैचिंग चूड़ियों की खरीदारी, ज़ेवरों की खरीदारी के साथ कई दिन पहले ही ब्यूटीपार्लर भी बुक करवा लिए जाते हैं. औरतें उस रोज़ चाँद की दीदार की तैयारी में सुबह से ही ब्यूटी पार्लर्स में जमा होने लगती हैं. बालों को कलर करवाना, नेल पेंट करवाना, फेशियल-मेकअप और तमाम तरह के अन्य श्रृंगार औरतें करती हैं. पति का खूब पैसा करवाचौथ पर लुटाया जाता है और पति चूं भी नहीं करते क्योंकि धर्म ने बताया है कि ये सब उनकी ही लम्बी उम्र के लिए हो रहा है. लेकिन यही धर्म दूसरी ओर उन तमाम महिलाओं के साथ घोर अन्याय और बर्बरता कर रहा है जो विधवा हैं, अकेली हैं, तलाकशुदा हैं या किसी कारणवश जिनका विवाह नहीं हो पाता है. उनके लिए तो करवाचौथ एक गाली है. एक नश्तर है जो उनके सीने में गहरा ज़ख्म करता है. उनकी भावनाओं को छलनी करता है.
एक-डेढ़ दशक पहले तक करवाचौथ का व्रत इतनी धूमधाम से नहीं मनाया जाता था. भारत के कुछ ही भागों में यह प्रचलित था, लेकिन इसका प्रचलन बढ़ाने का श्रेय हिंदी फिल्मों और टीवी सीरियलों को जाता है. धर्म, पूजा पाठ, व्रत त्यौहार का छौंक लगा कर जो मसाला रंगीन परदे पर परोसा जा रहा है, उसने भारतीय समाज में उन औरतों की ज़िंदगी हलकान कर रखी है जिनके पीछे कोई मर्द नहीं है. पहले भावनाओं को माध्यम बना कर कम्पनियाँ अपने उत्पाद बेचा करती थीं .
अब धार्मिक कुरीतियों को हवा दे कर अपने विज्ञापन करती हैं और उनके विज्ञापनों के दम पर चलने वाले टीवी धारावाहिक समाज में अकेली नारी के दर्द को भुना कर अपना बाज़ार चलाते हैं. पराये मर्दों की गिद्ध दृष्टी से कदम-कदम पर बच कर और डर कर रहने वाली अकेली औरत की ज़िंदगी करवाचौथ मनाने वाली औरतों ने भी नरक कर रखी है. चाहे टीवी सीरियलों में देखें या आम जीवन में, इस त्यौहार की आड़ में सुहागिन औरतें विधवा औरतों को कटु वचन बोलते, घृणा और उपेक्षा से देखते और व्यंग बाण मारते ही दिखाई देती हैं. अपने कृत्यों से उन्हें हर वक़्त यह दिखाने और महसूस कराने की कोशिश होती रहती है कि तुम अकेली हो, तुम अपशकुन हो, तुम समाज का कलंक हो.
धर्म कुछ औरतों को ख़ुशी दे रहा है और कुछ औरतों को घोर दुख में डुबा रहा है. धर्म भेदभाव कर रहा है. धर्म औरत की ताकत को पुरुष से कमजोर रखने के लिए इन व्रतों और अनुष्ठानों के ज़रिये औरतों के बीच ही खाइयां बनाता है. उन्हें एकजुट नहीं होने देता. करवाचौथ के नाम पर सुहागिन औरतें विधवा औरतों का तिरस्कार कर रही हैं, उसको ये कह कर अपमानित कर रही हैं कि उनकी छाया पड़ना भी अपशकुन है. वह उनको घृणा और उपेक्षा की नज़रों से देखती हैं. यह सब उन्हें कौन सिखा रहा है? यह सब उन्हें धर्म और उसके ठेकेदार सिखा रहे हैं. क्या धर्म को ऐसा करना चाहिए? क्या धर्म किसी अबला को तकलीफ पहुंचाने के लिए होना चाहिए?
करवाचौथ को लेकर अन्य सवाल भी उठते हैं. क्या करवाचौथ का व्रत रखने वाली सारी औरतें सुहागन ही मरती हैं? क्या करवाचौथ की व्रत रखने वाली सभी महिलाओं के पति लम्बी आयु प्राप्त करते हैं? ऐसा तो हरगिज़ नहीं है. पूरी श्रद्धा से व्रत करने वाली औरतें भी तो विधवा हो जाती है, ऐसे में करवाचौथ पति की लम्बी आयु की गारंटी कैसे हो गया? क्या धर्म का कोई ठेकेदार इस बात की गारंटी लेने को तैयार
सवाल और भी हैं. अगर करवाचौथ जैसे व्रत से किसी की उम्र लम्बी हो सकती है तो ऐसा व्रत पति अपनी पत्नी के लिए क्यों नहीं रखते हैं? क्या वे नहीं चाहते कि उनकी पत्नी की उम्र लम्बी हो? इसका मतलब तो यह निकला कि वह अपनी पत्नी को प्रेम ही नहीं करते हैं. उनकी लम्बी उम्र की कामना नहीं रखते, बल्कि व्रत ना रख कर वो अपनी पत्नी को मारना चाहते हैं. ऐसे पति के लिए फिर क्यों व्रत रखना? क्या आज के युग में सब पति पत्निव्रता हैं? आज की अधिकतर महिलाओं की जिन्दगी घरेलू हिंसा के साथ चल रही है, जिसमें उनके पतियों का हाथ है. ऐसी महिलाओं का करवाचौथ का व्रत रखना कैसा रहेगा?
श्रीमती सरला सेठी 15 साल से विवाहित हैं. उनकी अपने पति से लगभग रोज़ लड़ाई होती है. पति की शाम को दारु पीने की आदत है. उसका बहुत सारा पैसा दारू में जाता है. इसी बात को लेकर आधी-आधी रात तक दोनों में गाली-गलौच होती रहती है.
किट्टी पार्टी में आने वाली श्रीमती सरोज की महीने में बीस दिन पति से बोलचाल बंद रहती है और वो उस बात को अपनी सहेलियों से छुपाती भी नहीं हैं. अक्सर वो सहेलियों के बीच अपनी ज़िंदगी का रोना रोती रहती हैं.
कामवाली बाई कमला का पति हफ्ते में दो तीन बार दारु पी पर उसको पीटता है और कमला का कहना है कि वह वेश्याओं के पास भी जाता है.
स्कूल में टीचिंग करने वाली सुधा का अपने पति से तलाक और दहेज़ का केस चल रहा है, केवल कोर्ट में तारीखों पर ही पति-पत्नी का आमना सामना होता है. परन्तु ये सभी महिलायें करवाचौथ का व्रत रखती हैं. क्यों रखती हैं तथा इनकी मानसिक स्थिति क्या है? कल्पना कर के देखिये.
करवाचौथ मुस्लिम नहीं मनाते, ईसाई नहीं मनाते, दूसरे देश नहीं मनाते और तो और भारत में ही दक्षिण, या पूर्व में इसे नहीं मनाते, लेकिन इस बात का कोई सबूत नहीं है कि इन तमाम जगहों पर पति की उम्र
कम होती हो और इसको मनाने वाली औरतों के पतियों की उम्र ज़्यादा हो जाती हो. यह व्रत ज्यादातर उत्तर भारत में प्रचलित हैं, दक्षिण भारत में इसका महत्व ना के बराबर हैं, क्या उत्तर भारत की महिलाओं ke
दरअसल करवाचौथ के ज़रिये दशकों से महिलाओं द्वारा महिलाओं के लिए ताबूत गढ़े जा रहे हैं. समाज में अकेली, निर्बल नारी को और ज़्यादा अकेला और भयभीत करने के लिए करवाचौथ का सामूहिक प्रदर्शन धर्म के ठेकेदारों द्वारा आयोजित करवाया जाता है. महिलाओ की मानवीय गरिमा का इस तरह विरोध करने वाले त्योहारों को क्या त्यौहार की संज्ञा देना उचित है? क्या इनका समर्थन किया जाना चाहिए?
सच तो यह है कि करवाचौथ औरतों के लिए एक परम्परागत मजबूरी है. या यूँ कहें कि यह एक दिन का दिखावा हैं? करवाचौथ जैसा व्रत महिलाओं की एक मजबूरी के साथ उनको अंधविश्वास के घेरे में रखे हुए हैं. ज़्यादातर औरतें इसको अंधविश्वास के तहत धारण करती हैं, मगर बहुतेरी ऐसी हैं जिन्हे मजबूरीवश घर के बड़ों के कहने पर यह व्रत रखना पड़ता है. क्योंकि कल को यदि उनके पति के साथ कुछ हो गया तो इसका ठीकरा यह कह कर उसके सिर पर फोड़ा जाएगा कि वह अपने पति की लम्बी आयु के लिए करवाचौथ का व्रत नहीं करती थी. इस डर से वह इस व्रत को रखती हैं. इस व्रत की कहानी भी अंधविश्वासपूर्ण भय उत्पन्न करती है कि करवाचौथ का व्रत न रखने अथवा अज्ञानवश व्रत के खंडित होने से पति के प्राण खतरे में पड़ सकते हैं, यह महिलाओं को अंधविश्वास और आत्मपीड़न की बेड़ियों में जकड़ने को प्रेरित करता है. आखिर सारे व्रत-उपवास पत्नी, बहन और माँ के लिए ही क्यों हैं? पति, भाई और पिता के लिए क्यों नहीं होते? क्योंकि धर्म की नज़र में महिलाओं की जिंदगी की कोई कीमत नहीं है, पत्नी मर जाए तो पुरुष दूसरी शादी कर लेगा, क्योंकि सारी संपत्ति पर तो व्यावहारिक अधिकार उसी को प्राप्त है.