भारत गणराज्य के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म साल 1904 में उस समय वाराणसी का हिस्सा रहे मुगलसराय में हुआ था। उनकी 119वीं जन्म जयंती पर उन्हें पूरा देश याद कर रहा है। अपनी सादगी और जमीन से जुड़े होने के लिए जाने, जाने वाली और गुदड़ी के लाल कहे जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री के रामनगर स्थित आवास पर सुबह से ही लोग श्रद्धांजलि देने के लिए पहुंच रहे हैं। इसी घर में एक कमरा है, जिसे अब कमरा नंबर-3 कहा जाता है। इस कमरा नंबर-3 का सच क्या है और इससे कैसे शास्त्री जी की यादें जुडी हुई हैं। इस सम्बन्ध में हमने यहां के केयर टेकर महेंद्र नारायण लाल से बात की।
जन्म के दो साल बाद ही छूट गया पिता का साथ
लाल बहादुर शास्त्री का जन्म साल 1904 में हुआ। उनके जन्म के ठीक दो साल बाद उनके पिता शारदा प्रसाद का देहांत हो गया। ऐसे में उनकी माता पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। लाल बहादुर शास्त्री के पिता इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में सहायक अध्यापक के पद पर तैनात थे। उनकी मृत्यु के बाद बच्चों की देख भाल और उनकी जिम्मेदारी रामदुलारी देवी के ऊपर आ गई। रामदुलारी बच्चों को लेकर मिर्जापुर अपने मायके चली गगईं पर पिता की भी दो साल बाद मृत्यु हो गई।
कमरा नंबर-3 का सच
गुदड़ी के लाल जिन्हे प्यार से सभी घर में नन्हे कहते थे वो पढ़ने में तेज थे। ऐसे में मां राम दुलारी ने उनकी शिक्षा में रुकावट नहीं आने दी। इसमें उनके रिश्तेदारों ने उनका साथ दिया। एक बार फिर वो काशी लौटीं तो बच्चों की सारी जिम्मेदारी उठाई। कमरा नंबर-3 दरअसल शास्त्री जी की मां की रसोई है जिसे आज भी संजो के रखा गया है। इस रसोई में ही उनकी मां ने उन्हें पढ़ाते हुए खाना खिलाया। उनकी मेहनत से शास्त्री जी मेधावी छात्र बने। उसके बाद यह गुदड़ी का लाल विश्व पटल पर छा गया।
किराए के पैसे न होने पर तैर कर जाते थे बनारस
शास्त्री जी ने अपनी ग्रहण की और रामनगर से बनारस जाने के लिए गंगा को पार करना पड़ता था। नाव से जाने वाले शास्त्री जी के पास जब पैसे नहीं होते थे। ऐसे में वो अपनी पुस्तकें दोस्तों को देकर गंगा जी को तैर कर पार कर जाते थे और फिर पढ़ाई के बाद वापस वैसे ही घर आते थे। उन्हें जब देश का प्रधानमंत्री बनाया गया तो काशी से मिर्जापुर तक जश्न का माहौल था।
ललिता श्रीवास्तव ने संभाली रसोई
लाल बहादु शास्त्री की शादी मिर्जापुर की ललिता शास्री से हुई थी, जब तक लाल बहादुर शास्त्री जिंदा रहे ललिता शास्त्री ने इस रसोई को सम्भाला। उन्होंने ने भी अपने 6 बच्चों को इसी रसोई में बनाकर स्वादिष्ट व्यंजन खिलाए पर प्रधानमत्री के देहावसान के बाद उन्होंने यहां रहने से मना कर दिया क्योंकि प्रधानमंत्री भी यहां बस त्योहारों पर आते थे बाकी दिन दिल्ली ही रहते थे। प्रधानमंत्री की मौत के बाद जब सरकार ने यहां रहने के लिए कहा तो उन्होंने कहा की जब वो ही यहाँ कम रहे तो अब मै अकेले कैसे रहूंगी।