किसी भी लेखक की विरासत उसके विचारों और कहानियों में नजर आती है। उसकी कहानियां उस दुनिया से प्रेरित होती हैं, जिसमें वह रहता हैं। इसीलिए लेखक की रचना उसके दौर का आइना कहलाती है।
लेकिन प्रेमचंद्र की कहानियां उनके दौर को तो दर्शाती ही हैं, साथ ही आज भी उनकी कहानियां और कहानी के पात्र सजीव लगते हैं, प्रासंगिक लगते हैं। आज का पाठक भी स्वयं को उससे जुड़ा महसूस है।
आज देश इस महान साहित्यकार की मुंशी प्रेमचंद की 84 वीं पुण्य-तिथि मना रहा है। हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक थे मुंशी प्रेमचंद। मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव, प्रेमचंद को नवाब राय और मुंशी प्रेमचंद के नाम से भी जाना जाता है। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर संबोधित किया था। प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी के साहित्य का मार्गदर्शन किया।
आगामी एक पूरी पीढ़ी को गहराई तक प्रभावित कर प्रेमचंद ने साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। उनका लेखन हिन्दी साहित्य की एक ऐसी विरासत है जिसके बिना हिन्दी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा। प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं। उनके पुत्र हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतराय हैं जिन्होंने इन्हें कलम का सिपाही नाम दिया था।
मुंशी प्रेमचंद की कविता
दुनिया में यूँ तो हर किसी का साथ-संग मिला
अफ़सोस सब के चेहरे पे एक ज़र्द रंग मिला
मज़हब की रौशनी से था रौशन हुआ जहाँ
मज़हब के मसीहाओं से पर शहर तंग मिला
सच की उड़ान जिसने भरी और उड़ चला
वो शख़्स शहादत की लिए इक उमंग मिला
कल तक गले लगा के जो करता था जाँ निसार
बातों में उसकी आज अनोखा या ढंग मिला
जिसने लिबास ओढ़ रखा था उसूल का
वो फर्द सियात की उड़ाता पतंग मिला
सूली पे चढ़ गया कोई हक़ बोलकर यहाँ
तारिख़ के पन्नों पे इक ऐसा प्रसंग मिला
शीशे में शक्ल देख हैराँ हुआ हूँ मैं
शीशा भी मुझे देखकर किस कद्र दंग मिला
मज़नू जहाँ गया वहाँ इक भीड़ थी जमा
हाथों में सबके एक नुकीला सा संग मिला
मिलकर चले थे सबके कदम सहर की तरफ
क्यों आज विरासत में ये मैदाने जंग मिला
‘गोदान’
1936 में प्रकाशित प्रेमचंद्र की ‘गोदान’ आम आदमी के संघर्षों की बात करता है। यह उपन्यास अंग्रेजों के जमाने में गांव के गरीबों के आर्थिक अभाव पर आधारित है। आज के आइने में देखें तो आज भी आम आदमी उन्हीं झंझावातों से जूझ रहा है। यह पूरी कहानी और इसके सारे पात्र आज भी प्रासंगिक है। लोगों के जीवन की सादगी और आर्थिक अभाव आज भी बरकरार है इसके बाद साल 2004 में गोदान 27 कड़ियों में टीवी पर भी अवतरित हुआ, जिसकी दर्शकता उम्मीद से कहीं अच्छी थी।
‘प्रतिज्ञा’
1927 में प्रकाशित प्रेमचंद्र की ‘प्रतिज्ञा’ विधवा पुनर्विवाह के इर्द-गिर्द आलोचना और पूर्वाग्रह को दर्शाती आगे बढ़ती है। हमारे ग्रामीण समाज में आज भी यह मुद्दा बरकरार है। ‘प्रतिज्ञा’ के माध्यम से प्रेमचंद्र ने समाज की दबी-कुचली महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन का समाधान भी पेश करता है। गौरतलब है कि अपने वास्तविक जीवन में भी प्रेमचंद ने विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया और समाज के विरोध का सामना किया। अपने वास्तविक जीवन में भी प्रेमचंद ने विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया और समाज के विरोध का सामना किया।
‘रंगभूमि’
प्रेमचंद की ‘रंगभूमि’ 1924 में प्रकाशित हुई थी। इस उपन्यास में लेखक ने ग्रामीण भारतीय किसानों की दुर्दशा को बड़ी शिद्दत से प्रस्तुत किया है। आज का किसान भी आर्थिक संकट से जूझ रहा है, और हारता है तो खुदकुशी तमाम संघर्षों से आजाद हो जाता है। कमोबेस आज भी अधिकांश भारतीय किसान दबी-कुचली जिंदगी जी रहा है। इस पुस्तक में लेखक पूंजीवाद, सिविल सेवकों के स्वार्थ और समाज में व्याप्त समस्याओं को रेखांकित करते हैं। यह सारी समस्याएं, विपत्तियां आज भी देखने को मिलती हैं।
‘गबन’
1931 में लिखी ‘गबन’ आजादी से पहले के समय का लेखा-जोखा दर्शाती है। उस काल में प्रेमचंद्र ने आम आदमी के आर्थिक एवं सामाजिक हालातों को दर्शाने की सटीक कोशिश की है। यह पूरी कथा एक ऐसे किरदार के इर्द-गिर्द घूमती है, जो खुद को ब्रिटिश भारत में फ्रॉड के लिए संदिग्ध मानता है। यह प्रेमचंद के सबसे लोकप्रिय उपन्यासों में से एक माना जाता है। साल 1966 में इस उपन्यास पर भी एक फिल्म बनी थी, जिसमें सुनील दत्त, साधना और कन्हैया लाल ने ‘गबन’ के मुख्य पात्रों को बड़ी उत्कृष्टता से जीया था।
जीवन के अंतिम दिनों में भयंकर बीमारियों से जूझते हुए इस महान साहित्यकार ने 8 अक्टूबर 1936 में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन उनकी प्रेरक कृतियां आज भी उन्हें हमारे दिलों में जिंदा बनाए हुए हैं।