मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज के आज जेल में दो साल पूरे हो गए है इस पर उनकी बेटी ने भावुक संदेश लिखा है. जिसे पढ़ कर आप भी उनका दर्द महसूस कर पाएंगे।
सुधा भारद्वाज को अगस्त 2018 में पुणे पुलिस ने भीमा-कोरोगाँव मामले में माओवादियों से कथित तौर पर संबंध होने के मामले में फ़रीदाबाद स्थित उनके आवास से गिरफ़्तार किया था
अब उन्हें जेल में दो साल पूरे हो गए हैं. उनसे दूर उनकी 23 साल की बेटी मायशा ने इस मौक़े पर एक पत्र लिखा है.
पत्र में मायशा ने लिखा है- आज के दिन दो साल पहले माँ को गिरफ़्तार कर लिया गया था. जब वो हाउस अरेस्ट में थीं, तब स्थितियां अलग थीं. मैं उन्हें देख सकती थी, छू सकती थी, बात कर सकती थी. लेकिन जब से उन्हें जेल ले जाया गया, मुझे लगता है कि मेरे दिल के टुकड़े को छीन लिया गया है. ख़ुद को संभालना मेरे लिए मुश्किल हो रहा है. उनकी गिरफ्तारी के बाद मैं महीनों तक रोयी हूं.”
मायशा भारद्वाज फ़रीदाबाद में अकेली रहती हैं. वो लिखती हैं, “जब कोविड-19 महामारी शुरू हुई और क़ैदियों को अपने परिवार वालों से फ़ोन पर बात करने की इजाज़त दी गई, तब मैं हर दिन उनके कॉल का इंतज़ार करती थी. लेकिन उस इंतज़ार का कोई फ़ायदा नहीं हुआ. आख़िरकार 9 जून को मैंने चार महीने बाद उनकी आवाज़ सुनी. तब मैं बहुत ख़ुश भी हुई और भावुक भी.”
मानवाधिकार कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज के जेल में दो साल पूरे होने के मौक़े पर उनकी बेटी ने भावुक संदेश लिखा है.
सुधा भारद्वाज को अगस्त 2018 में पुणे पुलिस ने भीमा-कोरोगाँव मामले में फ़रीदाबाद स्थित उनके आवास से गिरफ़्तार किया था.
अब उन्हें जेल में दो साल पूरे हो गए हैं. उनसे दूर उनकी 23 साल की बेटी मायशा ने इस मौक़े पर एक पत्र लिखा है.
द हिंदू अख़बार ने मायशा की चिट्ठी को प्रमुखता से जगह दी है. पत्र में उन्होंने लिखा है, “आज के दिन दो साल पहले माँ को गिरफ़्तार कर लिया गया था. जब वो हाउस अरेस्ट में थीं, तब स्थितियां अलग थीं. मैं उन्हें देख सकती थी, छू सकती थी, बात कर सकती थी. लेकिन जब से उन्हें जेल ले जाया गया, मुझे लगता है कि मेरे दिल के टुकड़े को छीन लिया गया है. ख़ुद को संभालना मेरे लिए मुश्किल हो रहा है. उनकी गिरफ्तारी के बाद मैं महीनों तक रोयी हूं.”
मायशा भारद्वाज फ़रीदाबाद में अकेली रहती हैं. वो लिखती हैं, “जब कोविड-19 महामारी शुरू हुई और क़ैदियों को अपने परिवार वालों से फ़ोन पर बात करने की इजाज़त दी गई, तब मैं हर दिन उनके कॉल का इंतज़ार करती थी. लेकिन उस इंतज़ार का कोई फ़ायदा नहीं हुआ. आख़िरकार 9 जून को मैंने चार महीने बाद उनकी आवाज़ सुनी. तब मैं बहुत ख़ुश भी हुई और भावुक भी.
वो कहती हैं, “मेरी मां ने भारत में रहने के लिए अपनी अमरीकी नागरिकता छोड़ दी थी और यहां जरुरत मंद लोगो की सहायता करी. लेकिन सरकार कह रही है कि उन्होंने अपनी नागरिकता इसलिए छोड़ी कि वो ग़रीब लोगों का इस्तेमाल करें और सरकार के ख़िलाफ़ उन्हें बरगलाएं. इसलिए मैं पूछना चाहती हूं कि क्या कोई और ऐसा व्यक्ति है जिसने सिर्फ़ अपने देश के लोगों की सेवा के लिए अमरीका की अपनी आरामदायक और अच्छी ज़िंदगी छोड़ दी हो? और फिर उन्हें देश-विरोधी क़रार दे दिया गया हो? मेरी दादी (कृष्णा भारद्वाज) जो एक जानी-मानी अर्थशास्त्री हैं, वो मेरी मां को अपने जैसा बनाना चाहती थीं. लेकिन मेरी मां ने अपना रास्ता चुना; उन्होंने अपने लोगों की सेवा करना चुना. क्या ये देश-विरोधी है?”